"विश्वासघात"
जिनको अपना समझा था
वो हमी को न समझ पाए
जिनपे हमने विश्वास किया था
वो हमी पर विश्वास न कर पाए
ज़िन्दगी में इतने धोके खा चूका हूँ अब
की समझ नहीं आता किसको अपना समझूं
किस पर विश्वास करून अब
अब हमको कोई समझना भी चाहे
अब कोई विश्वास का खेल फिरसे खेलना भी चाहे
तो डर लगता है की इस ज़ख़्मी को कही एक ठोकर और न पढ़ जाए
ज़िन्दगी का सफ़र अकेले ही शुरू किया था
अकेले ही चला जा रहा हूँ
और अकेले ही ख़तम करूँगा ऐसा लगता है
फिर भी दिल में एक आशा की किरण है
की कही किसी मोड़ पे एक मुसाफिर और मिलेगा
और यह सफ़र हमारे साथ पार करेगा .
- अवनीश गुप्ता
well written poem, clearly expressing the pain with optimism..
ReplyDeleteBhai tu toh writer ban gaya h..chaa gaya yr..!
ReplyDeletethnk u guys for ur appreciation...
ReplyDeletenice post
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