अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
और एक अलग ही दुनिया में खो जाता हूँ
कभी खुली आँखों से सपने बुनता हूँ
तो कभी उन्ही सपनो की गहराइयों में रात को डूब जाता हूँ
अपने सपनो को देखके उन्ही सपनो में जीने का दिल करता है
पर फिर उन्ही हसीन हसरतो को हकीक़त मनाने का मेरा जी करता है
की क्यूँ इंसान इतना नादान है
जो खुद ही से अभी तक अनजान है
की क्यूँ इंसान है इतना अजीब
हमेशा इसकी हसरते होती है कुछ पाने की हसीन
अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
और वक़्त की ताक्कत को महसूस कर भोच्का रह जाता हूँ
ये तो वक़्त वक़्त की बात है
की कल जो अपने थे आज पराये हो गये
और कल के पराये आज हमारे सहारा देने वाले कन्धे बन गये
ये तो वक़्त वक़्त की बात है
की सुख में मिल जायेंगे बहुत ख़ुशी बाटने के लिए
पर कौन है अपना कौन पराया दुःख में इसका एहसास होता है
अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
और बीतें लम्हों की यादों में घूम हो जाता हूँ
कभी कभी उन् सबकी याद आ जाती है
कभी कभी उन् सब की कमी मुझे खल जाती है
कैसा होता मेरा आने वाला कल
अगर मेरा आज भी होता मेरा बिता हुआ कल
अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
और हज़ारों सवालों से युही घिर जाता हूँ
अगर ऐसा होता तो कैसा होता
अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
की क्यूँ मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
की क्यूँ मैं बार बार कही खो जाता हूँ
की क्यूँ मैं इतने सवाल उठाता हूँ
की क्यूँ मैं याद करता और फिर जुदा हो जाता हूँ
इन्ही सब सवालों के जवाब ढूंडने बार बार मैं निकल जाता हूँ
और अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
और अक्सर मैं सोच में पढ़ जाता हूँ
- अवनीश गुप्ता
a very philosophical poem
ReplyDeleteyour poems are getting better over time avanish
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