Thursday, 11 October 2012


      
     

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ 
और  एक  अलग  ही  दुनिया  में  खो  जाता  हूँ
कभी  खुली  आँखों  से  सपने  बुनता  हूँ 
तो  कभी  उन्ही  सपनो  की  गहराइयों  में  रात  को  डूब  जाता  हूँ
अपने  सपनो  को  देखके  उन्ही  सपनो  में  जीने  का  दिल  करता  है 
पर  फिर  उन्ही  हसीन  हसरतो  को  हकीक़त  मनाने   का  मेरा  जी  करता  है 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  खुद  ही  से   ये  सवाल  उठाता  हूँ 
की  क्यूँ  इंसान  इतना  नादान  है  
जो  खुद  ही  से  अभी  तक  अनजान  है 
की  क्यूँ  इंसान  है  इतना  अजीब 
हमेशा  इसकी  हसरते  होती  है  कुछ  पाने  की  हसीन 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  वक़्त  की  ताक्कत  को  महसूस  कर  भोच्का  रह  जाता  हूँ
ये  तो   वक़्त  वक़्त  की  बात  है 
की  कल  जो  अपने  थे  आज  पराये  हो  गये  
और  कल  के   पराये  आज  हमारे  सहारा  देने  वाले  कन्धे  बन  गये  
ये  तो  वक़्त  वक़्त  की  बात  है 
की  सुख  में  मिल  जायेंगे  बहुत  ख़ुशी  बाटने  के  लिए 
पर  कौन  है  अपना  कौन  पराया  दुःख  में  इसका  एहसास  होता  है 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  बीतें  लम्हों  की  यादों  में  घूम  हो  जाता  हूँ
कभी  कभी  उन्  सबकी  याद    जाती  है 
कभी  कभी  उन्  सब  की  कमी  मुझे  खल  जाती  है 
कैसा  होता  मेरा  आने  वाला  कल 
अगर  मेरा  आज  भी  होता  मेरा  बिता  हुआ  कल 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  हज़ारों  सवालों  से  युही  घिर  जाता  हूँ
की  कैसा  होता  अगर  ऐसा  होता 
अगर  ऐसा  होता  तो  कैसा  होता 

अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  बार  बार  कही  खो  जाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  इतने  सवाल  उठाता  हूँ
की  क्यूँ  मैं  याद  करता  और  फिर  जुदा  हो  जाता  हूँ
इन्ही  सब  सवालों  के  जवाब  ढूंडने  बार  बार  मैं  निकल  जाता  हूँ
और  अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ
और  अक्सर  मैं  सोच  में  पढ़  जाता  हूँ 


- अवनीश गुप्ता 

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